गरमी में अगर एसी काम न करे तो कुछ कवि भयंकर रूप से बेचैन हो जाते हैं. लगभग बौराए -से. जो महाकवि किस्म के होते है, वे बाकायदा छटपटाए -से नज़र आते हैं. एक दौर था, जब मौसम की मार झेल कर भी कविता लिखी जाती थी, पर अब तो रंज कवि को होता है मगर आराम के साथ. आजकल मौसम अनुकूल हो तभी कविता प्रकट होती है. वरना जयहिंद। सच्ची बात है. जब कभी 'ए.सी' काम नहीं करता न, तो किसी भी बड़े और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कवि का मूड भी नहीं बनता। मूड नहीं बनता, इस कारण हिंदी साहित्य की बड़ी क्षति होती है क्योंकि बेचारा कवि जो है सो कविता नहीं लिख पाता। उस दिन भी उस कवि के साथ यही तो हुआ। कवि सुबह से मूड बना कर निकला था कि दफ्तर जा कर हमेशा की तरह काम नहीं करेगा। केवल फेसबुक में भांति-भांति के ज्ञान पेलेगा और कविताएँ लिखेगा। पर दफ्तर आया तो बिजली गुल। एसी चल ही नहीं रहा। इन्वर्टर भी खराब था. कविता क्या खाक होगी। कविता तो एसी की हवा पाकर बहती है।
कवि पसीने से तर-ब-तर हो रहा था। मगर कविता बाहर निकलने का नाम नहीं ले रही थी। कविता न हुई सरकारी योजना हो गई जो आकार नहीं ले पा रही थी। कवि अफसर था। उसने लोगों को हड़काया कि क्या कर रहे हो? पता करो, बिजली अब तक क्यों नहीं आई।
दफ्तर के अन्य कर्महीनकिस्म के चर्चित जीवों ने बताया-''बस, आने ही वाली है। इन्वर्टर ठीक होने ही वाला है।''
और कुछ देर बाद बिजली आ गई। एसी चालू हो गया। शीतल-मंद-समीर का झोंका शरीर से टकराने लगा। कवि का मूड बनने लगा।
उसने लिखा-'''तपती दोपहरी में धूप के पहाड़ पर चढ़ता मनुष्य मुझे देता है चुनौती/... मैं उसके साथ कंधे-से-कंधा मिला कर चलना चाहता हूँ/ ..जलना चाहता हूँ/ ...चिलचिलाती धूप में जिंदगी बन कर।''
कवि ने अपनी लिखी कविता पढ़ी और समझ गया कि ये इकलौती कविता हिंदी साहित्य में इतिहास रचेगी। अभी तक इतनी महत्वपूर्ण कविता लिखी ही नहीं गई। पर कवि संतुष्ट नहीं था।
उसने एक और कविता ढील दी-''धूप होगी अपनी जगह/. गरमी से झुलसे रहे हों मेरे जैसे मनुष्य/ पर मैं चीखूँगा जोर-से गरमी के खिलाफ/... करता रहूँगा हस्तक्षेप / जैसे नदीं करती है चट्टान से बगावत।'' ..फ्रिज से चिल्ड वाटर निकाल कर कवि ने आगे भी लिखा। और दोनों कविताओं को संपादक के पास भेज दिया। संपादक को कवि अपने शहर में बुला चुका था। उसका अभिनंदन किया था। संपादक को भविष्य में फिर सम्मान की लालसा थी। उसने दोनों कविताओं को प्रकाशित कर दिया। कवि ने अपनी कविता आलोचक के पास भी भेजी। आलोचक पहले से ही के कुछ लाभ उठा चुका था। अपनी पत्रिका के लिए अफसर कवि के सौजन्य से विज्ञापन प्राप्त करने के कारण वह धन्य था। इसलिए अफसर कवि की एक-एक पंक्ति में उसे कहीं निराला, कवि नागार्जुन, कहीं, धूमिल नजर आ रहे थे। समीक्षा छप कर आई तो कवि रातोंरात और अधिक लोकप्रिय हो गया।
एक दिन फिर कवि के कमरे का एसी बंद था। तब कवि को एसी का महत्व समझ में आया। एसी न चलता, तो कविता न होती। कविता न होती तो वह छपती नहीं। छपती नहीं, तो आलोचक उस पर कुछ लिखता नहीं। लिखता नहीं, तो उसका नाम न होता। इसलिए धन्यवाद है एसी को। कवि फिर एसी चालू होने की प्रतीक्षा कर रहा था। आज वह फिर पसीना बहाने वाले मेहनतकश मनुष्य पर कुछ लिखना चाहता था। मगर एसी फिर बंद था। उसे बड़ी कोफ्त हुई। इन्वर्टर फिर खराब हो गया? उसने मातहत को फटकारा -इतना भ्रष्टाचार क्यों? किसने खरीदा था यह ऐसी? मातहत ने सिर झुका कर कहा- हुजूर, आपने ही तो ...। अफसर चुप हो गया। अब अचानक उसके मन में ईमानदारी पर कविता लिखने का भूत सवार हुआ और जैसे ही लाइट चालू हुई कवि ने कविता लिखी-गिरे हुए लोगों के सहारे उठ नहीं सकता समाज। भ्रष्ट हो कर आदमी रच नहीं सकता एक अच्छी कविता। बहाना पड़ता है लहू और पसीना , तब जा कर बनती है एक कालजयी कविता। लिखने के बाद कवि ने कविता दूसरी पत्रिका को भेज दी। साथ में विज्ञापन भी था। कविता छपनी ही थी।
कवि धीरे-धीरे महाकवि में रूपांतरित होता गया। उसने दफ्तर में जो ऊपरी कमाई की , उसे उसने कविता के लिए ही समर्पित कर दिया। अब उसके घर पर भी एसी लग गया है। और वह घर पर भी मूड बना कर किवता वगैरह लिख लेता है। इस कवि से उस कथन को झूठा साबित कर दिखाया है कि कवि दुखी हो, वियोगी हो तो कविता बनती है। कविता दुख-तकलीफ सह कर भी बनती है। मगर यहाँ तो कविता एसी चले बगैर बनती ही नहीं। इस दृष्टि से कवि अपने आप को नई परम्परा का जनक भी समझता है। और बड़ा गदगद रहता है।