25 दिसंबर 2016

नोटबंदी में फँस गए सांताक्लॉज   
नोटबंदी के कारण 'टेंशनाए' लोगों ने जब सांताक्लॉज को देखा तो लपक पड़े उसकी ओर.
 सब यही सोच रहे थे कि उपहारों की गठरी में नोट-ही-नोट होंगे। नोटबंदी के मारे लोग रात को भी नोट -नोट सपना रहे थे. भीड़ ने सांताक्लॉज को घेर लिया। लोग ''मुझे...मुझे'' करने लगे. धक्का -मुक्की, मारपीट की नौबत आ गयी। सांताक्लॉज के कपड़े फट गए. वे घबरा गए।  भाग भी नही सकते थे.  पिछले उच्च दिनों से बैंको और एटीएमों के बाहर लंबी-लंबी लाइने देख कर सांताक्लॉज को पहले लगा,  मेरी ही तरह सांताक्लॉज होगा कोई, जो उपहार बाँटने आया है।  लेकिन बाद में पता चला सब अपने पुराने नोट बदलवाने के लिए लाइन में लगे हैं या फिर नए नोट  पाने के लिए।  सांताक्लॉज ने  कहा ''भाइयो और बहनो, मेरे पास नोटबंदी का कोई समाधान नही है। मेरी गठरी में जो है, वही दे सकूंगा।'' एक ने कहा, ''ठीक है, जो है दे दो.'' उसके बाद तो फरमाइशों की लाइन लग गई. किसी को मंहगी कार की मांग की तो  किसी को आलीशान बंगला चाहिए था. किसी को विदेश यात्रा,  किसी को फ़ार्म हाउस तो किसी को सबसे मंहगा मोबाइल-लैपटाप चाहिए था। सांताक्लाज मुस्काए-''भाई, तुम लोग बेहद असंतुष्ट हो, परेशान जीव हो चुके हो। लो, तुम्हारे लिए इस बार कुछ अच्छे चीज़े लाया हूँ। इसे ले जाओ और जीवन भर सुख से रहो।'' किसी ने कहा, ''मतलब अच्छा-खास बैंक बैलेंस लाए है क्या?'' दूसरा भी सेवानिवृत्त अफसर था. मुफ्तखोरी की खानदानी आदत लगी थी।  वह चिल्लाया - ''सैंटा, नए साल का जश्न मनाने विदेश जाने का मूड है.हवाई टिकट दे दो। अब कोई साला घास ही नहीं डालता।'' एक नेता ने  कहा, ''सरकार की नोटबन्दी के कारण घर में दबा कर रखे गए हजार-पांच सौ के नोट बेकार हो रहे हैं. इनको दो हजार के गुलाबी नोटों में बदल दो।''   सांताक्लॉज हंस पड़े - ''वे बोले, ''मैं जादूगर नहीं हूँ भाई,सांताक्लॉज हूँ.अडानी-अम्बानी टाइप का अरब-खरबपति सेठ भी नहीं हूँ, जिसके घर जाकर बैंकवाले नए नोट थमा कर आ जाते हैं.. नोटबंदी के कारण मैं भी कुछ ठीक से खरीद नहीं पाया. मेरे खाते में बहुत धन भी नहीं था कि 'कैशलेस' खरीदी करता।   मैं तो कुछ और उपहार ले कर चलता हूँ सस्ता-सुंदर और टिकाऊ.चहिये तो बोलो वरना मैं तो चला.''  उपहार सुन कर माळेमुफ्त के रोग से  ग्रस्त कुछ लोग चीख पड़े , ''तो जल्दी निकालो, न नए साल का गिफ्ट। फोकट का चंदन भी होगा तो हम घिस लेंगे। सांताक्लॉज बोले - ''न मेरे पास चंदन है, न  काजल है।  मेरे पास जो है वो दे रहा हूँ.   ये लो 'परमसंतोष', .... पकड़ो 'शांति', ये लो 'सद्भावना', ये रहा जीवन का परम 'आनंद।'' सांताक्लाज ने गठरी खोल दी। सांताक्लॉज के उपहारों से कुछ लोग भयंकर निराश हुए, मगर कुछ समझदार लोग प्रसन्न हो कर अपनी राह चल पड़े। 'थैंक्स गॉड' कहते हुए सांताक्लॉज भी लौट गए लेकिन वे सोचते हुए जा रहे थे कि अब दुबारा इस तरफ आना  खतरे से खाली नही है. जान बची और लाखो पाए, लौट के सैंटा घर को आए.  

1 जुलाई 2016

व्यंग्य /महंगाई के कमरतोड़ आसन


इस देश में अगर योग के लिए प्रेरणा देने का काम किसी ने किया है तो वो है परमप्रिय महंगाई-सुंदरी. 
इसे डायन कहना ठीक नहीं. डायन बर्बाद करती है, ये सुंदरी आबाद करती है. जनता और महंगाई-बाला दोनों अपने-अपने तरीके से योगासन कर रहे हैं. महंगाई के कारण लोग 'शीर्षासन' करने पर मजबूर है. 
योग की सारी मुद्राएं करती है महंगाई. 'अनुलोम-विलोम' उसे बड़ा प्रिय है. साँस खींचती है यानी कीमत बढ़ाती है,और कभी-कभार साँस छोड़ती भी है. यानी कीमतें कम भी करती है लेकिन ऐसी नौबत कम ही आती है. वह अपना पेट गोल-गोल घुमाती रहती है. इसीलिये तो उसकी सेहत बनी हुई है. आम आदमी की सेहत गिर रही है. आम आदमी  दाल की बढ़ती  कीमत देख कर 'दुःखासन' करने लगता है.
तभी टमाटर लाल हो जाता है और
 पेट्रोल मुंह चिढ़ाने लगता है, 
तो आम आदमी ''शवासन'' करने की मुद्रा में आ जाता है.
 आम आदमी महंगाई के विरुद्ध पहले बहुत  'चिल्लासन' करता रहता था, पर जब से वो समझ गया है सरकार 'बहरासन' (यानी बहरी) में माहिर हो चुकी है, तब से वह भी ''मौनआसन'' करने लगा है.'ऐसी मीठी कुछ नहीं, जैसी मीठी चूप.''
उस दिन महंगाईबाई मिल गई . 
उसने कहा- ''आ लग जा गले.'' मैंने कहा -''हम दूर से ही भले''.  
वह बोली- ''इतनी जल्दी घबरा गया पगले? अभी तो ये अंगड़ाई है, आगे और महंगाई है?'' 
मैंने कहा- ''तेरे कारण हम परेशान है ''
 वह बोली- ''क्या करे, सरकार हम पर मेहरबान है' उसके कारण मेरा जलवा बना रहता है. तेरी थाली भले हो खाली पर मेरी थाली में तर हलवा बना रहता है.. दरअसल मैं तुम लोगो को हिम्मत देती हूँ. 'कम खाओ, गम खाओ' का सूत्र मैंने दिया है. कम खा कर सेहत बनाओ और योग करके फिट रहो. यह मैं ही तो सिखा रही हूँ.'' 
मैंने कहा-'' क्या हम लोग जीवन भर 'भूखासन' ही करते रहे?'' 
महंगाई बोली - ''बिलकुल 'भूखासन' करोगे तो 'सुखासन' मिलेगा.मैं इस देश के लोगों को सबक सीखने के लिए अपना ''योग'' दिखा रही हूँ . खा-खा कर लोग मुटा रहे हैं. आरामतलब हो गए हैं. मगर जब से मैंने अपना 'भ्रामरी' शुरू किया है, तब से लोग भी भुन-भुनाने लगे हैं. और मजबूरी में ही सही, एक टाइम खाना खा  रहे हैं और देखो, कैसे फिट नज़र आ रहे हैं. इस तरह इस देश को मैंने योगासनो के लिए प्रेरित किया है. मैं न होती तो लोग मुटाते जाते। पड़े रहते. मेरे कारण कम खाते हैं और अधिक -से-अधिक पैसे कमाने की कोशिश करते हैं. भले ही नंबर दो की कमाई हो....
 ...'घोटालासन' कितना पॉपुलर हो गया है. किसके कारण? मेरे कारण। 
....लोग पैसे वाले बन रहे हैं, किसके कारण?  मेरे कारण. 
....इस देश को पूंजीवादी कौन बना रहा है? मैं यानी महंगाई , 
....समझे मेरे भाई? चलो, अब कुछ मत बोलो. बोलने का कोई मतलब भी नहीं निकलता इसलिए एक अच्छा आसान बता रही हूँ, उसे करो और सुखी रहो.' 
मैंने कहा- ''बता दो देवी, उसे भी कर लेते हैं.'' 
वह हंसी और बोली- ''इस देश में सुखी रहना है तो एक ही सर्वोत्तम योगासन है. उसे करते चलो. वैसे सालों से कर ही रहे हो. वह है ''चुप्पासन''. और 'कुढ़ासन' और 'दुःखासन'. चुप रहो और कुढ़ते रहो.'' 
महंगाई के भयंकर कमरतोड़ आसनो को सीख कर हम लौट आए.  

16 जून 2016

कैसे-कैसे इतिहास पुरुष ...


ऐसे लोगों से हमको बहुत ही डर लगता है जो 'इतिहास - पुरुष' किस्म के होते हैं। यानी इतिहास के जानकार। कुछ सच्चे जानकार होते है तो कुछ बड़े झुठल्ले। जिन्होंने इतिहास के साथ साथ  'फेंकोलाज़ी' में भी डिग्री हासिल कर ली हो। यानी बस फेंके जाओ, सच हो चाहे झूठ। मनगढ़ंत बातों को इतिहास बता कर निकल लो पतली गली से। बाद में लोग आपस में सिर-फुटौवल करते रहें। उनकी बला से। ऐसे लोग स्वयंभू पुरातत्ववेत्ता होते हैं। ये राह चलते किसी भी पुरानी वस्तु को घूर कर देखने लगते हैं और उसका काल निर्धारित करने में भिड़ जाते हैं। इस चक्कर में बेचारे पिटते भी रहते हैं। 

एक दिन एक इतिहासज्ञ एक मोटी महिला को घूर कर देख रहे थे, तो उसके पति ने उनकी पिटाई कर दी और पूछा, "का देख रहा था बे?" 
इतिहासज्ञ बोला, "देख रहा था कि ये बिल्डिंग कितनी पुरानी है।" यह सुनकर फिर दनदन पिटाई, "साले, हमार खबसूरत जोरू तुझे बिल्डिंग नज़र आवत है?" 
पिटने की पीड़दायक प्रक्रिया से गुजरने के बाद इतिहासज्ञ ने सड़क के उस पार खड़ी एक बिल्डिंग की ओर इशारा  करके बोला, 
"अरे मेरे बाप,  मैं तो उस बिल्डिंग की बात कर रहा हूँ।" तब लोगों ने सॉरी बोल कर उसे छोड़ दिया। उस दिन सड़क के किनारे पड़े एक पत्थर को वह दस हजार साल पुराना बताने लगा। 
लोग हँसने लगे, तो वह नाराज़ हो कर बोला, "मुझ पर हँस रहे हो, मुझ पर, जिसे लोग इतिहास-पुरुष कहते हैं? भस्म कर दूंगा तुम सब को।" 
लोग घबरा कर आगे बढ़ गए।
एक दिन वह एक घर को गौर से देख रहा था। मकान मालिक घबराया। 
दौड़ कर पास आया, "क्यों भाई, क्यों घूर रहे हो इसे?" 
इतिहासकार बोला, "इस घर में ही सन् 1860 में स्वामी विवेकानंद रहते थे।। इसे राष्ट्रीय स्मारक बना देना चाहिए।" 
पास खड़े एक सज्जन भी कुछ ज्ञान रखते थे। वे भड़क कर बोले, "कुछ भी मत फेंको। विवेकानंद का जन्म 1863 में हुआ था तो वे 1860 में अपने जन्म से तीन साल पहले यहाँ क्या करने आए थे?"  
इतिहासकार भी चीखा- "अरे, वे तब आए थे जब अपनी माँ के गर्भ में थे। समझे। उनकी माँ यहां आई थी". उसकी बात सुनकर लोग हँसने लगे तो इतिहासकार खिसिया कर आगे बढ़ गया।
एक दिन शहर के बाहर एक जगह खड़े हो कर इतिहासज्ञ जी लोगों को बता रहे थे, "आप लोग ये जो पत्थर पर पैरों के निशान देख रहे हैं न, वो हनुमान जी के पैरों के निशान हैं।" कुछ लोग फौरन से पेश्तर उस निशान को प्रणाम करने लगे। भीड़ लग गई।
एक ने कहा, ''बोलो बजरंग बली की...'' तो बाकी लोगों ने कहा, "जय"। 
तभी एक आदमी वहां पहुँचा और बोला, "अरे मेरे दद्दा, ये बजरंग बलि के पैर नहीं, एक मूर्ति के पैर हैं। मैं मूर्तिकार हूँ। बहुत दिन से केवल पैर बना कर छोड़ दिया था। अब बाकी काम करूँगा।" 
इतना सुनना था कि लोग भड़क गए। इतिहासज्ञ एक बार फिर पिटते-पिटते बचा। 
...और उस दिन के बाद से वो इतिहास नहीं, साहित्य में रुचि ले रहा है। उसे किसी ने समझा दिया है कि साहित्य में "फेंकने" की भरपूर गुंजाइश रहती है। जो जितना फेंके, उतना बड़ा साहित्यकार। इतिहासज्ञ अब साहित्य में धूम मचाए हुए है। 
कभी कहता है, कविता मर रही है ...
तो कभी कहता है कहानी का अंत हो रहा है।....
यहाँ उसे कोई पीटने वाला नहीं क्योंकि यहाँ एक नहीं, अनेक आत्माएं इसी गोत्र की हैं।
इतिहास के नाम पर 
वे लोग बेचारे 
उपहास के पात्र 
बन जाते है 
जो इतिहास के साथ-साथ 
फेंकोलजी का भी 
पाठ पढ़ाते हैं 

14 जून 2016

अथ 'एडमिन' कथा

जैसे साहित्य में विफल लेखक आलोचक बन जता है, उसी तरह जीवन में विफल आदमी 'व्हाट्सएप-ग्रुप' बना कर सफल 'एडमिन' हुइ जाता है.अपना तो अनुभव यही बताता है. (अंदर की बात जे है कि मैं भी एक एडमिन हूँ) 'व्हाट्सएप-ग्रुप' के कुछ एडमिनों की शारीरिक संरचना वैसे तो आम मनुष्य के जैसी ही होती है, पर वे अपनी अतिरिक्त क्षमता विकसित करके एक दिन जड़मति से सीधे सुजान में परिवर्तित हो जाते हैं. इसलिए वे आलतू-फालतू ज्ञान के मामले में वे सबसे आगे होते हैं. तभी तो 'एडमिन' जैसे पद को सुशोभित कर रहे होते हैं, वर्ना वे भी ग्रुप के निरीह सदस्यों में से एक होते, जो अक्सर भयंकर बेचारे किस्म के होते हैं. उनका 'व्हाट्सएप-भविष्य' एडमिन की दया पर निर्भर होता हैं। एडमिन उनकी सहमति के बगैर उनको जोड़ता है और जब मूड हुआ, रिमूव (हटा) भी देता है. ऐसा करते हुए उस की आत्मा गदगद रहती है. ऐसे एडमिन खुद को प्रधानमंत्री से कम नहीं समझते । कुछ एडमिन लगातार फतवे जारी करते रहते हैं , ''कोई भी घटिया चुटकुले पोस्ट नहीं करेगा''.... किसी पर टान्ट नहीं कसेगा''... ये नहीं करेगा.... वो नहीं करेगा''. और पता चला कि खुद फुहड़ चुटकुला दे रहे हैं। लेकिन उसे सब छूट है क्योंकि 'एडमिन' है भाई. कुछ खाली बैठे लोग ग्रुप बनाने में ही लगे रहते हैं. गोया उनके पास और कउनो धंधा ही नहीं है. तुकबन्दी करने वाले कवि टाइप का जीव होगा तो ग्रुप बना लेगा, 'कविताकला'. और लोहे का व्यापारी है, तो उसके ग्रुप का नाम होगा, 'हम लौह पुरुष'. पिछले दिनों एक कबाड़ी ने भी ग्रुप बनाया और उसका नाम रख दिया, 'कबाड़खाना'. जीवन भर ब्लैकमेलिंग करने वाले एक सज्जन ने ही अपने ग्रुप का नाम रख दिया , 'हम क्रांतिकारी'. इसमें उन सबको को शामिल किया जो 'सूचना के अधिकार' का अपने पक्ष में 'आर्थिक उपयोग' करे की कला में पारंगत थे. पाकिटमारों ग्रुप बनाया और उसका नाम आम रखा, 'सफाईकर्मी' .





कल तक जिन्हें कोई मोहल्ले में भी न पूछता था, वे आज दो-तीन ग्रुपों के स्वामी हैं.एक ने तो बाकायदा विजिटिंग कार्ड छपवा लिया है, जिसमे लिखा रहता है, 'एडमिन- कबाड़खाना', 'एडमिन -कविताकला', 'एडमिन फलाना-फलाना'. जो भी मिलता है उससे आग्रह करते हैं 'हमारे ग्रुप से जुड़ जाएँ और क्रांति करें।' एक एडमिन तो कमाल का था. उसकी अपने सगे भाई से नहीं पटती थी, मगर उसके ग्रुप का नाम था, 'भाईचारा'. अपने ग्रुप में वो प्रेम का, भाईचारे का, दया-ममता का संदेश देता था. और सगे भाई के खिलाफ मुकदमे में भिड़ा रहता था. तो एडमिन अनन्त, एडमिन-कथा अनन्ता है. कुछ एडमिन घर पर भी अकड़ कर चलते हैं और बाहर भी. इधर-उधर कुछ इस अंदाज़ से देखते हैं कि लोग समझ जाएँ कि बन्दे में कुछ दमख़म है. एडमिन को लगता है कि वो जन-गण -मन का भाग्यविधता है और उसके ग्रुप के सदस्य जो हैं सो केवल मोहरे हैं।

उस दिन एक अस्त-व्यस्त पर अपने में मस्त एडमिन पर उसकी एक अदद धर्मपत्नी चीख रही थी, ''ये क्या, हर वक्त मोबाइल में लगे रहते हो, घर के काम तो करते नहीं।'' पति कुछ देर के लिए सहम गया और बोला, ''रुको अभी, दो लोग को जोड़ना है और पांच लोगों को हटाना है.'' पत्नी चीखी, '' तुम्हारे जोड़-घटाने की प्रतिभा यही दिखती है. देखो, अपना बिट्टू फिर फेल हो गया है गणित में.'' एडमिन पत्नी की मूढ़ता पर मन-ही-मन दुखी हुआ और गुस्से में व्हाट्सएप ग्रुप से दस लोगों को हटा दिया .ये वे लोग थे, जो न कोई चुटकुले भेजते थे, न शेरोशाइरी, न किसी महापुरुष का कोई अनमोल वचन. बस व्हाट्सएप के जनपद में उपेक्षित और निष्क्रिय नागरिक की तरह पड़े रहते थे। 'एडमिन' ऐसे लोगो को हटा कर बड़ा खुश होता है .उसे लगता है, जैसे देश की सीमा से किसी घुसपैठिए को भगा दिया हो. एडमिन अपना महत्व बताने के लिए कुछ-न-कुछ निर्देश भी पेलते रहता है, जिसे हर सदस्य झेलते रहता है. एक बार एक एडमिन ने किसी सदस्य को हटा दिया तो सदस्य ने फोन कर उसकी क्लास ली, ''क्यों भाई, चिरकुट जी, मुझे क्यों हटा दिया? जोड़ा ही क्यों था, और किससे पूछ कर? और अब हटा क्यों दिया ? तुम हो कौन भाई? कहाँ से टपके हो?'' इतना सुनना था कि एडमिन पिन-पिन करने लगा -'' हें... .हें, भूल से रिमूव हो गया। फिर जोड़ लेता हूँ। '' सदस्य कहता है, '' भूल कर भी ऐसा मत करना। न जाने कितने जन्मों के बाद मनुष्य योनि नसीब हुई है और तुम उसका सुख लेने की बजाय अपने ग्रुप में जोड़ कर आलतू-फालतू फूहड़ चुटकुले और राजनीतिक आग्रह-दुराग्रह झेलवाते रहते हो. मुझे मुक्त रखो. तुम्हें दूर से ही नमन। '' फटकार सुनकर एडमिन टेंशना जाता है, पर बहुत जल्दी सामान्य हो कर फिर 'किसे हटाऊँ, किसे जोड़ूँ' में भिड़ जाता है. पत्नी सर पीटती है और निठल्लेराम उर्फ़ एडमिन-पतिदेव को कोसते हुए किराने का सामान लेने खुद निकल जाती है.

6 जून 2016

व्यंग्य लघुकथा ..


 अर्थी पर लाल बत्ती...

उनको लालबत्ती से बड़ा प्रेम था.
कार में बैठे हैं तो सामने लाल बत्ती, बैलगाड़ी पर भी सवार होते तो सामने लालबत्ती. कभी-कभार नाटक-नौटंकी करने के लिए रिक्शे पर चलते तो भी तो हुड पर लालबत्ती. घर पर रहते तो बाहर लालबत्ती घूमती रहती. 
लोग उन्हें 'लालबत्ती वाले भैयाजी' कहने लगे. 
एक दिन वे मर गए. तब भी उनकी अंतिम इच्छा पूरी हुई. 
अर्थी के सामने लालबत्ती लगाकर शवयात्रा निकली. 
लोगों ने नारे भी लगाए- ''राम नाम सत्य है.....भैया जी अमर रहे ...
राम नाम सत्य है.....भैया जी अमर रहे.''

3 जून 2016

नारेबाज़ी में नंबर वन.....


विश्व के तमाम देशो के बीच अगर नारेबाजी की प्रतियोगिता हो तो अपना देश हमेशा पहले नंबर पर रहेगा। 
एक-से-एक  नारे । कुछ लोग तो जीवन भर नारे की ही खाते हैं. ये और बात है कि कुछ अधिक खा लेते हैं तो अपच होने लगती है. यानी काली कमाई जमा होती जाती है. तो का करें। मजबूरी में विदेश जाकर काला धन जमा करके लौटते है और फिर  नारा लगाते  हैं -भारत माता की जय. हर सरकार नए नारे के साथ प्रकट होती हैं। इसे नारा  नहीं झुनझुना भी कह सकते हैं. और कमाल की है जनता।  हर बार झुनझुने से प्रभावित हो कर अपने दुबारा लुटने का बंदोबस्त कर लेती है. किसी ज्ञानी ने कहा है कि इसी छलावे का नाम है लोकतंत्र। 
 जल संकट का दौर था, तो सरकार चिल्लाई ''जल बचाओ. जल है तो कल है।'' 
जनता  ने कहा, ''जल हो तो बचाएँगेन न ।'' 
मंत्री ने चौंकते हुई  कहा -''अरे, जल नहीं है? अभी तो पीए ने गूगल में सर्च कर बताया कि जल की कउनो कमी नहीं है. यकीन नहीं होता तो गूगल बाबा की शरण में जाओ.'' 
जनता बोली- ''गूगल सर्च कर सकते तो पानी का भी बंदोबस्त कर लेते।'' 
  पीए ने मंत्री के कान में कहा- ''अनपढ़ जनता है। बेचारी, इंटरनेट का कनेक्शन नहीं लगा पा रही।'' 
पीए  की बात सुनकर मंत्री की आँखों में आँसू आ गए और बड़बड़ाए -' हाय-हाय मेरी जनता'। फिर बोतलबंद पानी को गटकते हुए बोले- ''आप लोग बोलिए माता की जय। हमारी माता जल संकट हरेगी।'' 
जनता ने नारा लगाया। मंत्री ने पूछा- ''कैसा फील हो रहा है?'' 
जनता बोली- ''लग रहा है, हम पानी से नहा रहे हैं। आपका आभार । आपने हमें जल संकट से उबारा।'' कुछ दिनों के बाद चुनाव होने थे। मंत्री को सत्ता का खून लग चुका था। फिर चुनाव लडऩे मैदान में उतर चुके थे। 
वे जनता के पास पहुँचे और बोले- ''मुझे ही वोट देना। भारतमाता की जय.'' 
जनता ने कहा, '' बिल्कुल आपको ही देंगे। भारत माता की जय।'' 
चुनाव के नतीजे सामने आए, तो मंत्री और उनकी पूरी सरकार 'टें' बोल चुकी थी।  पराजित मंत्री का पीए गधे के सर से सींग की तरह गायब हो चुका था। 
नई सरकार सत्ता पर विराजमान हो चुकी थी। उसने नया नारा दिया था- 'देश मेरा, विकास मेरा। सबको पानी, सबको काम, थोड़ी मेहनत, ज्यादा दाम'। 
जनता ने सोचा- नारा तो अच्छा है। अब शायद अच्छे दिन आएँगे । लेकिन न विकास हुआ, न किसी को काम मिला । दाम तो बहुत दूर की बात। 
एक ने कहा- ''क्या हम फिर ठगे गए?'' 
दूसरा हँस पड़ा। 
पहले ने पूछा- ''क्यों हँस रहे हो?''  
दूसरे ने कहा- ''अपने आप पर हँसने से टेंशन कम हो जाता है। सरकार पर हँसना अपनी मूर्खता को प्रकटीकरण ही है। इसलिए अब चिंता मत करो। नारों के साथ हो जाओ और भारत माता की जयबोल कर संतोष करो।'' 
पहले ने पूछा-  ''और ये जो जल संकट है, उसका क्या?'' 
मित्र ने कहा- ''  ये किरकेट मैच काहे होते हैं भाई? इनको देखो और मनोरंजन करो न। और अगर प्यास लगती भी है तो बाजार में बिकने वाला फलाना-फलाना शीतयपेय पी कर कूल-कूल बने रहो।''    

' सूखे ' का परम ' सुख '


अपने यहाँ सूखा पड़े तो कुछ लोग  बड़े सुखी टाइप के हो जाते हैं. बाढ़ आ जाए या महामारी तो वे गदगद हो कर भगवान के आभारी हो जाते  हैं. ये सारे अवसर किसी उत्सव से भी कम नहीं होते। मंत्री से लेकर संत्री और अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक धन्य हो जाते हैं. कुछ सरकारी घरों में औरते यही मनाती है कि प्रभो, इस बार भी अच्छा-खासा  'सूखा' पड़े ताकि घर एक बार फिर कुछ 'गीला' हो सके. 'सूखा-उत्सव' का 'सुख' ही अलग है. 
अफसरजी की इकलौती बीवी अपनी सहेली  के साथ सूखे दिनों को याद कर रही है-''जब पिछली बार सूखा पड़ा था, तो बड़ा मज़ा आया था. 'ये' सूखा-सर्वे करने गए थे, इनके साथ हम भी चले गए. बड़े पत्नी-भक्त है. सरकारी दौरे में कभी-कभी साथ ले जाते हैं. हम रेस्ट हाउस में रुके. क्या खातिरदारी हुई थी वहां. पनीर की सब्जी तो बड़ी स्वादिस्ट बनी थी. खाना बड़ा लज़ीज़ था, सो अधिक खा लिया था. रसगुल्ले तो न जाने कितने पीस गटके होंगे. उसी कारण कुछ दिन पेट खराब रहा, इसलिए वह सूखा भुलाए नहीं भूलता। सूखा न पड़ता, तो घर में होम थिएटर वाला टीवी भी न आता. जब कोई बड़ा प्राकृतिक संकट आता है, हमारे घर में कोई-न-कोई बड़ा आइटम आ जाता है . भगवान का लाख-लाख शुक्र है..तेरी मेहर हम पर बनी हुई है..'' 

सहेली की बात सुनकर दूसरी बोली- ''सचमुच, सूखा में परमसुख छिपा है.मैं तो बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करती हूँ, पर क्या करें, कभी-कभी सूखा पड़ता ही नहीं, लेकिनकोई बात नहीं, तब बाढ़ आ जाती है न. उसके लिए भी राहत-फंड बहुत रहता है. इसी बहानेअपने घर में भी कुछ-ंन- कुछ राहत कार्य हो जता है . 'मतबल' ये कि सूखा आए चाहे बाढ़, हम लोग तर रहते हैं. अगले जन्म में हमें ऐसा ही पति दे जो सरकरी नौकरी में हो पर मालदार पोस्ट में  हो. ये जीवन तो एक दिन नष्ट हो जाएगा इसलिए क्यों न ऐश करके मरें.''  
पहली ने कहा - ''पर बड़ा संभल कर करना पड़ता है न. आजकल जलनखोर बढ़ गए हैं। शिकायत कर देते हैं. छापा पड़ जाता है। बड़ी मुसीबत हो जाती है.हालांकि कुछ-न-कुछ दे कर मामला मैनेज भी हो जाता  है।'' 
दूसरी ने कहा - ठीक कहती हो, कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. इज़्ज़त को क्या चाटेंगे? अरे, नंबर दो का काम करने से कुछ बदनामी भी होती है, तो  सह लेना चाहिए। लेकिन फायदा कितना है, ये तो देखो।  वैसे आजकल छापे-वापे से बदनामी नहीं होती, उलटे शान बढ़ जाती है. बच्चे चहकते हुए  पड़ोस के बच्चों को बताते है कि  हमारे घर पर छापा पड़ा, तेरे घर नहीं पड़ा, लगता है तेरे डैडी कंगाल हैं।''  
पहली बोली- ''इस बार सूखा-उत्सव के बाद हम तो विदेश भ्रमण पर निकल जाएंगे। तेरा क्या प्लान है ?'' दूसरी बोली- '' हम लोग पंचतारा होटल में मैरिज एनवर्सरी को सेलिब्रेट करेंगे। मालेमुफ्त को उड़ाते रहना चाहिए।'' 
दोनों सहेलियां जोर से हंसती हैं. वे एक-दूसरे से सहमत थी और सूखे के कारण उनके जीवन में जो 'खुशहाली' बिखरी थी, उसका सुख लेते हुए वे किटी पार्टी के सुख को और अधिक बढ़ा रही थी.

11 मई 2016

कविता और 'एसी'



गरमी में अगर एसी काम न करे तो कुछ कवि भयंकर रूप से बेचैन हो जाते हैं. लगभग बौराए -से. जो महाकवि किस्म के होते है, वे बाकायदा छटपटाए -से नज़र आते हैं.  एक दौर था, जब  मौसम की मार झेल कर भी कविता लिखी जाती थी, पर अब तो रंज कवि को होता है मगर आराम के साथ. आजकल मौसम अनुकूल हो तभी कविता प्रकट होती है. वरना जयहिंद।  सच्ची बात है. जब कभी 'ए.सी' काम नहीं करता न, तो किसी भी बड़े और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कवि का मूड भी नहीं बनता। मूड नहीं बनता, इस कारण हिंदी साहित्य की बड़ी क्षति होती है क्योंकि बेचारा कवि जो है सो कविता नहीं लिख पाता। उस दिन भी उस कवि  के साथ यही तो हुआ। कवि सुबह से मूड बना कर निकला था कि दफ्तर जा कर हमेशा की तरह काम नहीं करेगा। केवल फेसबुक में भांति-भांति के ज्ञान पेलेगा और कविताएँ लिखेगा। पर दफ्तर आया तो बिजली गुल। एसी चल ही नहीं रहा। इन्वर्टर भी खराब था. कविता क्या खाक होगी। कविता तो एसी की हवा पाकर बहती है। 
कवि पसीने से तर-ब-तर हो रहा था। मगर कविता बाहर निकलने का नाम नहीं ले रही थी। कविता न हुई सरकारी योजना हो गई जो आकार नहीं ले पा रही थी। कवि अफसर था। उसने लोगों को हड़काया कि क्या कर रहे हो? पता करो, बिजली अब तक क्यों नहीं आई। 
दफ्तर के अन्य कर्महीनकिस्म के चर्चित जीवों ने बताया-''बस, आने ही वाली है। इन्वर्टर ठीक होने ही वाला है।'' 
और कुछ देर बाद बिजली आ गई। एसी चालू हो गया। शीतल-मंद-समीर का झोंका शरीर से टकराने लगा। कवि का मूड बनने लगा। 
उसने लिखा-'''तपती दोपहरी में धूप के पहाड़ पर चढ़ता मनुष्य मुझे देता है चुनौती/... मैं उसके साथ कंधे-से-कंधा मिला कर चलना चाहता हूँ/ ..जलना चाहता हूँ/ ...चिलचिलाती धूप में जिंदगी बन कर।'' 
कवि ने अपनी लिखी कविता पढ़ी और समझ गया कि ये इकलौती कविता हिंदी साहित्य में इतिहास रचेगी। अभी तक इतनी महत्वपूर्ण कविता लिखी ही नहीं गई। पर कवि संतुष्ट नहीं था। 
उसने एक और कविता ढील दी-''धूप होगी अपनी जगह/. गरमी से झुलसे रहे हों मेरे जैसे मनुष्य/  पर मैं चीखूँगा जोर-से गरमी के खिलाफ/... करता रहूँगा हस्तक्षेप / जैसे नदीं करती है चट्टान से बगावत।'' ..फ्रिज से  चिल्ड वाटर निकाल कर कवि ने आगे भी लिखा। और दोनों कविताओं को संपादक के पास भेज दिया। संपादक को कवि अपने शहर में बुला चुका था। उसका अभिनंदन किया था। संपादक को भविष्य में फिर सम्मान की लालसा थी। उसने दोनों कविताओं को प्रकाशित कर दिया। कवि ने अपनी कविता आलोचक के पास भी भेजी। आलोचक पहले से ही के कुछ लाभ उठा चुका था। अपनी पत्रिका के लिए अफसर कवि के सौजन्य से विज्ञापन प्राप्त करने के कारण वह धन्य था। इसलिए अफसर कवि की एक-एक पंक्ति में उसे कहीं निराला, कवि नागार्जुन, कहीं, धूमिल नजर आ रहे थे। समीक्षा छप कर आई तो कवि रातोंरात और अधिक लोकप्रिय हो गया। 

एक दिन फिर कवि के कमरे का एसी बंद था। तब कवि को एसी का महत्व समझ में आया। एसी न चलता, तो कविता न होती। कविता न होती तो वह छपती नहीं। छपती नहीं, तो आलोचक उस पर कुछ लिखता नहीं। लिखता नहीं, तो उसका नाम न होता। इसलिए धन्यवाद है एसी को। कवि फिर एसी चालू होने की प्रतीक्षा कर रहा था। आज वह फिर पसीना बहाने वाले मेहनतकश मनुष्य पर कुछ लिखना चाहता था। मगर एसी फिर बंद था। उसे बड़ी कोफ्त हुई। इन्वर्टर फिर खराब हो गया? उसने मातहत को फटकारा -इतना भ्रष्टाचार क्यों? किसने खरीदा था यह ऐसी? मातहत ने सिर झुका कर कहा- हुजूर, आपने ही तो ...। अफसर चुप हो गया। अब अचानक उसके मन में ईमानदारी पर कविता लिखने का भूत सवार हुआ और जैसे ही लाइट चालू हुई कवि ने कविता लिखी-गिरे हुए लोगों के सहारे उठ नहीं सकता समाज। भ्रष्ट हो कर आदमी रच नहीं सकता एक अच्छी कविता। बहाना पड़ता है लहू और पसीना , तब जा कर बनती है एक कालजयी कविता। लिखने के बाद कवि ने कविता दूसरी पत्रिका को भेज दी। साथ में विज्ञापन भी था। कविता छपनी ही थी। 

 कवि धीरे-धीरे महाकवि में रूपांतरित होता गया। उसने दफ्तर में जो ऊपरी कमाई की , उसे उसने कविता के लिए ही समर्पित कर दिया। अब उसके घर पर भी एसी लग गया है। और वह घर पर भी मूड बना कर किवता वगैरह लिख लेता है। इस कवि से उस कथन को झूठा साबित कर दिखाया है कि कवि दुखी हो, वियोगी हो तो कविता बनती है। कविता दुख-तकलीफ सह कर भी बनती है। मगर यहाँ तो कविता एसी चले बगैर बनती ही नहीं। इस दृष्टि से कवि अपने आप को नई परम्परा का जनक भी समझता है। और बड़ा गदगद  रहता है। 

1 मार्च 2016

झांसे का दूसरा नाम बजट

झांसे का दूसरा नाम बजट
गिरीश पंकज 
वित्त मंत्री उस जीव को कहते हैं जो अपने चित्त से बजट पेश करके जनता को चित कर देता है. जिसके कारण जनता पित्त रोग से परेशान हो जाती है. शरीर को खुजाने लगती है. 
देश की जनता महंगाई  नामक डायन से पहले से ही डरी होती है, पर जैसे ही बजट पेश करने का दिन आता है, वह समझ जाती है कि वित्तमंत्री देश के लोगो से पिछले जन्म का कोई  बदला भुनाएगा। और वित्त मंत्री मुस्कराते हुए बजट पेश करता है.  जनता पानी पी-पी कर उसे कोसती है. 
पिछले दिनों वित्त मंत्री मिल ही  गए, सपने में. वैसे तो मिलने से रहे. जिनके पास भरी-भरकम वित्त होता है, वही वित्त मंत्री से मिल सकता है. 
खैर, सपने में मुलाकात हो गई।  हमने कहा- ''ई का तमाशा है।  बजट है या झांसा है?'' 
वित्तमंत्री हँसे और बोले- ''ऐसा है भोले, बर्फ के गोले, झाँसे का दूसरा नाम ही बजट होता है. बजट में हम ऊंची -ऊंची फेंकते है, जिसे लपेट पाना मुश्किल हो जाता है. जैसे हम कहेंगे 'पांच साल बाद महंगाई ख़त्म', 'किसानो की आय दोगुनी हो जाएगी', 'देश का कालाधन वापस आ जाएगा'। बस, देश की जनता कर का भार अपने करों से उठा ले. जनता को लगता है वित्त मंत्री कह रहा है तो ठीक ही कह रहा होगा. बेचारी चुप कर जाती हैं, हम उसके गम को गलत करने बीड़ी से कर हटा लेते हैं. सोने-चांदी पर बढ़ा देते हैं।  जनता को दुःख भरी जिंदगी से मुक्ति हम जहर को कर मुक्त कर देते हैं.'' 
हमने कहा- ''आपने तो कहा था, हमारी सरकार आएगी तो अच्छे दिन आएंगे? क्या हुआ तेरा वादा?'' 
मेरी बात सुन कर वित्त मंत्री फुसफुसी हँसे - ''भाई, मेरे अपने वादे पर सरकार कायम है. अच्छे दिन आकर रहेंगे. हमसे बच कर वे जाएंगे कहाँ? पहले हम लोगों के अच्छे दिन तो आने दो. हमारे सांसद  हैं, बड़े -बड़े नेता है, उनके बाल-बच्चे हैं. उनके अच्छे दिन आ जाएं, फिर आम लोगों के लिए भी कुछ करेंगे। हम नहीं कर सके, तो अगली सरकार करेगी। अगर वो न कर सकी तो हम उसे चैन से जीने नहीं देंगे। जैसे अभी विपक्ष वाले हमारे साथ कर रहे हैं.''
वित्त मंत्री के उत्तर पर बड़ा गुस्सा आया।  हमने एक पत्थर उठा लिया। मंत्री नहीं, अपना सर फोड़ने के लिए. मगर मंत्री घबरा गया. भाग खड़ा हुआ।  
हम उसके पीछे दौड़े कि '' भाई मेरे, हम अपना सर फोड़ना चाहते हैं और यह शुभकार्य आपके हाथो से हो तो अतिउत्तम। '' 
वित्त मंत्री बोले- ''हम सब समझते हैं  कि हमारे साथ का -का हुई सकत है।  टाटा -टाटा, बाय-बाय.'' 
नींद खुली तो देखा सामने गृहमंत्री जी खड़े हैं.यानी हमारी पत्नी। वो बोली - ''सपने में बजट -बजट क्या बड़बड़ा रहे थे. घर के बजट की चिंता करो. अब रोज एक रोटी कम करो. खाने में शामिल गम करो। पगले, इस देश में बजट गरीबो को नहीं, अमीरो को ध्यान में रख कर बनता है क्योंकि देश को अमीर बनाना है.'' 
मुझे लगा पत्नी कितनी समझदार है. इसे तो वित्तमंत्री होना चाहिए था। लेकिन मैंने उसकी तारीफ़ नहीं की वरना वह दिल्ली तक दौड़ जाती।  
मैंने कहा- ''भगवान, तुम ठीक कहती हो, आज से गम ही खाएंगे. लेकिन पहले चाय तो पी लें। '' 
पत्नी  बोली-''पानी उबाल कर ला रही हूँ. उसे ही चाय समझ कर पी लो.दूध, शककर, चायपत्ती का खर्च बचेगा और भविष्य की समस्याओं से जूझने के लिए सेहत भी ठीक रहेगी।''  
मैं सोचने लगा, पत्नी तो स्वास्थ्य मंत्री भी बन सकती है. पर मैंने कहा नहीं, वरना वह खेल मंत्री बन कर मुझे बोल्ड भी कर सकती थी.